कत्थक नृत्य में रस और भाव का सम्बन्ध
भारत मुनि के अनुसार रस के बिना कोई भी नाट्यांग अर्थपूर्ण नहीं होता । उन्होंने कहा था कि भावानुकूल शरीर कि अवस्था को ही नृत्य कहते हैं । नृत्य के दर्शकों के मन में रस उत्पन्न करना ही कलाकार का लक्ष्य है । और भावों से ही रस कि उत्पत्ति होती है ।
मनुष्य के मानसिक स्तिथि को भाव कहते है । भाव से ही रस कि सृष्टि होती है । मनुष्य ह्रदय में किसी वस्तु ,व्यक्ति और पदार्थ को देखकर,जानकार,जो प्रथम विचार उत्पन्न होते हैं उन्हें भाव कहते हैं । इसी भाव की प्रतिक्रिया जब ह्रदय से बहार चेहरे पर आता है तो उसे हाव कहते हैं ।जब यह चेहरे से सीमित न रह कर अंग प्रत्यंगों में झलकने लगती है तो हम उसे हेला कहते हैं ।इन्ही भावों से रस की स्तिथि उत्पन्न होती है । कोई भी नृत्यकार दर्शकों को कितनी जल्दी रसपूर्ण स्तिथि में ला सकता है ,यह उसकी काबिलियत है ।
प्राचीन शास्त्रों के अनुसार भाव चार प्रकार के बताये गए हैं ।
१.स्थायी भाव -भावों में स्थायी भाव ही मुख्य है क्यूंकि बाकी तीन भावों से पोषित हो कर यह भाव रस का रूप ले लेता है ।स्थायी भाव हमारे ह्रदय में संस्कारों के रूप में हमेशा से ही व्याप्त रहता है ,यह अनुकूल उद्बोधक सामग्री को पा कर अभिव्यक्त होता है एवं ह्रदय में एक अपूर्व आनंद का संचार कर देता है ।अतएव नौ रसों का नौ स्थायी भाव बताये गएँ है :-रति भाव से श्रृंगार रस ,शोक भाव से करुण रस ,उत्साह भाव से वीर रस ,भय भाव से भयानक रस ,हास्य भाव से हास्य रस ,क्रोध भाव से रौद्र रस ,घृणा भाव से वीभत्स रस , विस्मय भाव से अद्भुत रस ,शम भाव से शांत रस ।
२.विभाव -रस के उत्पत्ति के बाहरी कारणों को विभाव कहा गया है ।यह दो प्रकार के होते हैं ।पहला प्रकार है आलम्बन विभाव । इनका सहारा या आश्रय लेकर रस उत्पन्न होते है ,जैसे नायक या नायिका । दूसरा प्रकार है उद्द्वीपन विभाव -जो बाहरी कारण भावों को भड़काए ,जैसे नदी ,चांदनी,हवा आदि उन्हें उद्द्वीपन विभाव कहते है ।आलम्बन एवं उद्द्वीपन मिलकर ही विभाव के रूप को पूर्णता प्रदान करते है ।विभाव ही विशेष रूप से रसों को प्रकाशित करते है ।
३.अनुभाव– स्थायी भावों को दर्शाने वाले विकार अनुभाव कहे जाते है ।भाव उत्पन्न होने के पश्चात जो लक्षण दिखाई देते है या वह लक्षण जो दर्शकों में भावो का अनुभव कराते है उन्हें अनुभाव कहा गया है ।यह स्थायी भाव के बाद उत्पन्न होते है इसलिए इन्हे अनु(पीछे) भाव कहा गया है ।
४.संचारी भाव -वे भाव जो रसों की और विभिन्न प्रकार से अग्रिम होती है उन्हें संचारी या व्यभिचारी भाव कहा गया है ।यह शब्दों एवं मुद्राओं के सहायता से रसों तक पहुँचने का कारण बन जाते है ।संचरणशील होने के कारण ही इन्हे संचारी भाव कहा जाता है और क्यूंकि यह विविध रूप से स्थायी भावों के अनुकूल संचरण करती है इसलिए इन्हे व्यभिचारी भाव कहा गया है ।संचारी भावों की संख्या ३३ माने गए है ,मुख्यत:-निर्वेद,ग्लानि,शंका,श्रम,घृति,जड़ता ,हर्ष,दैन्य औग्राया , चिंता,त्रास,इर्षा ,गर्व,स्मृति,मरण,मद,सुप्त,निद्रा,विबोध,व्रीड़ा,अपस्मार,मोह,मति,अलसता ,वेग,
तर्क,अवहित्था ,व्याधि,उन्माद,विषाद,औत्युक्य ,और चपलता ।
ऊपर दिए गए भावों से ही रस उत्पन्न होता है ।
Thanks! Really helped
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Hi! None of my blogs here are taken outright from a book.(please refer to the introduction at the start on the blog)… there may be similarities because the content remains the same.
Thanks for going through it! Hoped it helped!
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Thanks a ton!!
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did you take this from the “kathak nritya parichaya” book?
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Also please read my post
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thanx for the info
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