ABHINAYA (अभिनय)

अभिनय

मानव का प्रकृति  से अटूट सम्बन्ध है । आदी काल से मानव पर उसके सामाजिक गतिविधियों  का और प्राकृतिक गतिविधियों का प्रभाव रहा है । इन प्रभावों ने ही मानव संस्कृति और सभ्यता को दिशा दी है । मानव मन में उत्पन्न होने वाले भाव सभी इन प्राकृतिक एवं सामाजिक गतिविधियों के कारन है । मन के यही भाव धीरे धीरे अभिनय कला  में विक्सित हुई और बाद में इनसे कई ललित कलाओं का भी जनम हुआ । 

अभिनय शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की 'नी ' धातु से हुआ है । उपसर्ग 'अभि'  का अर्थ है ' की ओर  ', और  ' नी ' ( 'ले जाना ' ) के साथ जुड़ कर , यह शब्द यह समझाता है की इसके द्वारा भावों को दूसरों तक पहुँचाया जा सकता है । यथार्थ कवि या रचनाकार के  रचनाओं के अर्थ को कलाकार भाव प्रदर्शन से व्यक्त  करता है ताकि दर्शक  संपूर्ण रचना का आनंद उठा सके  ।
जो कलाकार जितनी स्वाभाविकता के साथ रचना के पात्रों के मन के भाव को अभिव्यक्त करता है , वह उतना ही बेहतरीन कलाकार माना जाता है ।ऐसे कलाकारों के प्रदर्शन के उपरांत दर्शक आनंद और रास से अभिभूत हो जाते हैं ।

मनुष्य के सोचने , बोलने और करने से तीन तरह के अभिनय का उत्पत्ति होता है । उद्धाहरण स्वरुप सोचने की प्रतिक्रिया से सात्त्विक अभिनय को उत्पन्न करता है । बोलने की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने वाली अभिनय वाचिक अभिनय कहलाती है और अंगों के क्रिया से उत्पन्न होने वाली अभिनय वाचिक अभिनय कहलाता है । इन तीनों के अलावा एक और प्रकार का अभिनय है जो की पात्रों के वेश भूषा एवं साज सज्जा से सम्बन्ध रखता है । नंदिकेश्वर ने अभिनय दर्पण में अभिनय प्रस्तुत करने की इन विधियोँ के बारे में उल्लेख किया है , उनके अनुसार अभिनय कला के मूल स्रोत प्रकृति और शिव से जुड़ा हुआ है। उन्होंने विस्तार से कहा है की  वाणी से गायन प्रस्तुत करना चाहिए और गायन का अर्थ मुद्राओं और विभिन्न अंग संचालन द्वारा प्रस्तुत करना चाहिए । अभिनय के इन चार प्रकाररों को
 अब हम विस्तार से समझते हैं ।

1. आंंगिक अभिनय : अंगों द्वारा व्यतीत किया गया अभिनय आंगिक अभिनय कहा जाता है  भारत मुनि ने सर्वप्रथम इसका जिक्र अपने नाट्यशास्त्र में किया था । उनके बाद नंदिकेश्वर ने इसका विस्तृत वर्णन अभिनय दर्पण में किया । उनके अनुसार आंगिक अभिनय का प्रदर्शन  शरीर के अंग , प्रत्यंग और उपांगों द्वारा किया जाता है । 
नाट्यशास्त्र के अनुसार आंगिक अभिनय के तीन भेद है : 
शरीरज - शरीर के मुख्य अंगों जैसे सिर , हाथ , पैर  आदि के   सहायता से प्रस्तुत किया गया अभिनय शरीरज कहलाता है  । 
मुखज - मुख के उपांगों के मदद से प्रस्तुत किया गया अभिनय जैसे आँख , कपोल , भौंह के सञ्चालन से , मुखज कहलाता है । 
चेष्टाकृत - पूरे शरीर के अंगों के प्रयोग से जब भावों को दर्शाया जाये ,जैसे किसी बूढ़े व्यक्ति  की चल का अनुकरण करना चेष्टाकृत आंगिक अभिनय कहलाता है । 

2. वाचिक अभिनय - भाषा या बोली के अंतर्गत वाणी द्वारा भावों की अभिव्यक्ति करने को वाचिक अभिनय कहा जाता है । अपने पात्रों के अनुसार वाणी के लय  , उतार चढ़ाव से अभिनय प्रस्तुत करना वाचिक अभिनय कहा जाता है । इसका प्रयोग नाट्य में ज्यादा होता है , पर नृत्य में वंदना से ले कर विभिन्न बोलों की पढंत से ले कर ठुमरी आदि में वाचिक अभिनय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है । 

3. आहार्य अभिनय - भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में आहार्य अभिनय का विस्तार से वर्णन किया है । 'नेपथ्य विधि ' का नाम ही आहार्य अभिनय है । रंगमंच के पीछे जहां कलाकारों को सजाया जाता है , नेपथ्य कहलाता है । पात्रों की भिन्न भिन्न प्रकृतियाँ एवं अवस्थाएं होती है । रंगमंच पर किसी भी पात्र की सर्वप्रथम पहचान उसके रूप सज्जा से  होता है , दर्शकों को पात्रों के बारे में सर्वप्रथम ज्ञांत (उनके देश , काल , अवस्था आदि )उनके उचित आहार्य द्वारा ही होता है  । उसके बाद कलाकार आंगिक , वाचिक अवं सात्त्विक अभिनय की सहायता से अपना अभिनय प्रस्तुत करता है । इसी कारणवश नाट्य कला में और नृत्य में आहार्य अभिनय को आसाधारण महत्व दी गयी है 
आहार्य अभिनय चार प्रकार में संपन्न होता है -
पुस्त- पुस्त का अर्थ मंच सज्जा और मंच पर  बनायीं जाने वाली आकृतियों से है । 
अलंकार - वस्त्र एवं आभूषण का धारण करना ।
अंगरचना - किसी पात्र का रूप सज्जा अंगरचना कहलाता है ।
संजीव - जब मुखौटे लगाकर अन्य जीव जंतु का अभिनय संपन्न किया जाता है तो वह संजीव के अंतर्गत संपन्न होता है ।

4. सात्त्विक अभिनय - दूसरों के भावों में अभिभूत हो जाने को  सत्त्व कहते हैं । चारों प्रकार के अभिनय में से यह सब से कठिन माना  गया है । जब कलाकार , पात्र के भावावस्था में पूरी तरह से डूब जाये तो सात्त्विक भाव अपने आप प्रकट होने लगते हैं । मन में आठ प्रकार के सात्त्विक भाव उत्पन्न हो सकते हैं : 
स्तम्भ (स्तंभित या अचंभित होना),
 स्वेदाम्बु(पसीना पसीना होना), 
रोमांच (रोमांचित होना),
 स्वर भंग( वाणी का लड़खड़ाना ),
 वेपथु ( कंप कंपी होना),
 वैवरना( चेहरे  की आकृति बदल जाना ), 
अश्रु ( आंसू आना ) ,
 और प्रलय ( मूर्छित हो जाना )  । इन्ही भावों का प्रदर्शन सात्त्विक अभिनय कहलाता है 


उपर्युक्त चारों प्रकार के अभिनय का भली भांति अभ्यास से ही कला में शुद्धता , कलात्मकता , एवं  गहराई आ सकती है । हम देखते हैं  नृत्य के तीनों भेदों में से , नृत्त में आंगिक अभिनय का , नाट्य में वाचिक अभिनय का और नृत्य में सात्त्विक अभिनय का प्रधान महत्त्व है । आहार्य अभिनय तीनों में समान रूप से महत्व रखता है ।

BIBLIOGRAPHY

(Keeps updating..)

1.Kathak Nritya Parichay (Harishchandra Shrivastav)

2.Kathak Nrtya Shiksha Part1&2 (Dr.Puru Dadheech)

3.Kathak Nritya (Dr. Lakshmi Narayan Garg)

4.Nritya Kala Darpan (Ramkrishna Talukdar)

5.Tabla Taal Sangrah (Ramdas Agarwal)

6.Sangeet Parijat (Shachindranath Mitra)

7.Kathak Nritya (Prakash Narayan)

8.Taal Vigyan (Uttarakhand Open University, Haldwani)

9.Sangeet Shikshak Sandarshika (NCERT)

10.www.cosmic-dance.com

KATHAK NRITYA PRADARSHAN KA KRAM

कथक नृत्य प्रदर्शन का क्रम

कथक नृत्य के हर प्रदर्शन का सर्वप्रथम ध्यय होता है कि वो सभी प्रकार के दर्शकों का मन मोह ले। साधारतया इस नृत्य को प्रस्तुत करने का एक क्रम स्थापित किया गया है। जिस किसी भी ताल में नर्तक नाच रहा है वह अपने नृत्य के अंशों को क्रमानुसार ही प्रस्तुत करता है। वर्तमान काल में प्रदर्शन के समय सीमा अनुसार प्रस्तुतियां की जाती है पर पूरा प्रदर्शन देखने का अलग ही महत्व है। नृत्य प्रदर्शन का क्रम कुछ इस प्रकार है –

१. वंदना– किसी भी प्रदर्शन की शुरुआत ईश्वर को स्मरण करके की जाती हैं। नृत्य के प्रारंभ में शिव ,गणेश या अपने गुरु की वंदना गायी जाती है। अपने घराने की परंपरा के अनुसार स्तुति या वंदना का चयन किया जाता है।

२. थाट– मंच पर आने के पहले तबले पर ठेका और हारमोनियम पर लेहरा बजने लगता है। नर्तक मंच पर किसी एक मुद्रा में थाट दर्शाता है। जयपुर एवं लखनऊ घराने के नर्तक अपने अपने ढंग से थाट दर्शाते हैं ।ग्रीवा एवं नेत्र संचालन करने का यह अच्छा अवसर प्रदान करता है ।

३. आमद – नृत्य प्रारंभ करने का यह सर्वप्रथम तोड़ा है।

४. प्रणामी – प्रारंभिक आमद के बाद नर्तक अपने किसी तोड़े द्वारा दर्शकों को प्रणाम या सलाम करता है। इस तोड़े को प्रणामी या सलामी कहते है । समय के साथ आजकल कई बार स्तुति ,प्रणामी के स्थान पर प्रस्तुत की जा रही है।

५. तोड़ा और परन – नृत्य के इस भाग में आ कर नर्तक अपनी कुशलता तोड़े ,परन , परमिलु, आदि प्रस्तुत करके दिखाते हैं ।तरह तरह के बोलों की रचनाएं प्रस्तुत की जाती हैं।घराना अनुयायि नटवरी के बोल या तबले और पखवाज के बोलों को पेश किया जाता है। तोड़े को ताल दे कर पढंत करते हैं और फिर उन्हें नाच कर दिखाते हैं।

६. चक्रदार– यह अंश तोड़ा और परन का ही विस्तारित रूप है। इसमें तोड़ा तीन बार नाचने के बाद सम पर आता है। नर्तक की तिहैयों की गिनती कई बार दर्शकों का मन मोह लेता है। चक्करों के बाद सठीक सम पर आने की रियाज़ की जाती है।

७. कवित्त– ब्रज भाषा में रचित कवित्त का मुद्रा एवं अंग संचालन द्वारा भाव रहित प्रदर्शन किया जाता है।

८. गत एवं गत भाव – नर्तक गत में नृत्य के गतियों को दर्शाता है । गत भाव के ज़रिए किसी भी कथानक के भाव को प्रदर्शित किया जाता है। कभी कभी ठुमरी ,ग़ज़ल या भजन से भी भाव और रस का प्रदर्शन किया जाता है।

९. ततकार– इस अंतिम खंड में लय द्रुत कर दी जाती है। नर्तक विभिन्न लयकरियां, तबला वादक के साथ सवाल जवाब, घुंघरुओं के ध्वनि में उतार चढ़ाव इत्यादि कलाओं को दर्शक के सम्मुख रखता है।

अपने अपने घरानों के अनुसार नर्तक इस क्रम में अपना नृत्य प्रस्तुत करता है । घराना एवं अपने शैली और अंदाज़ , का सामान्य फर्क हर प्रदर्शन में देखने को मिलता है और शायद इसलिए हर एक प्रदर्शन एक अलग अनुभव पेश करता है।

THIRD YEAR

Third yearThird year 

सूचि 

१.कुछ पारिभाषिक शब्द 
२.कत्थक नृत्य के घरानों का संक्षिप्त इतिहास
३.अच्छन महाराज,शम्भू महाराज, लच्छू महाराज एवं जयलाल की जीवनी
४.तालों का पूर्ण परिचय
५.संगीत में नृत्य का स्थान
६.तबला एवं पखावज का पूर्ण परिचय
७.विभिन्न प्रश्न पत्रों के कुछ सवाल



पारिभाषिक शब्द

१.रेचक (rechak)- शरीर के विभिन्न अंगों को व्यवस्थित ढंग  से अलग अलग रूप में घूमना या उनके अलग अलग चाल में गतिशील होने को  रेचक,रेचन अथवा रेचित प्रक्रिया कहा गया है 
। भारत मुनि के अनुसार रेचक के चार भेद है-१.पद रेचक,२.हस्त रेचक.३.कटी रेचक , ४. ग्रीवा रेचक ।पैरों के सञ्चालन को पद रेचक,हाथों के सञ्चालन को हस्त रेचक ,कमर के घुमाव को कटी रेचक एवं गर्दन के सञ्चालन को ग्रीवा  रेचक कहा गया है.। रेचक तांडव नृत्य का एक अभिन्न अंग है ।

२.अंगहार(anghaar) -तांडव नृत्य में एक महत्त्वपूर्ण तत्व अंगहार है । शरीर के अंगों को उचित प्रकार से रखने को अंगहार कहते हैं ।अंगहार कारणों के योग से बनती है ।विभिन्न नृत्त करणों को एक क्रम में प्रस्तुत करना अंगहार कहलाता है ।भरत मुनि के अनुसार ३२ अंगहार है जिनका उल्लेख नाट्यशास्त्र में किया गया है ।

३.उपांग(upaang) - आंगिक अभिनय में शरीर के विभिन्न अवयवों का सञ्चालन किया जाता है । अभिनय के दृष्टि से हरीर के अवयवों को तेन भाग में विभाजित किया जाता है -अंग, प्रत्यंग एवं उपांग ।
हर एक अंग के छोटे अवयवों को उपांग कहते हैं ।जैसे हाथों के उपांग है-कलाई ,हथेली ,पंजा और उँगलियाँ  । शास्त्रों में इन उपांगों के सञ्चालन का अलग अलग वर्णन किया गया है । इनका क्रियात्मक ज्ञान नृत्य के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत ही आव्यशक है ।

४.पलटा (palta)- पलटा शब्द का प्रयोग कत्थक नृत्य में दो तरीकों से होता है । पहला जब हम विभिन्न प्रकार के बोलों के क्रम को बदले ।तत्कार एवं टुकड़ों के पालते बनाये जाते हैं ।यह गायन और वादन में भी होती है ।गायन में अलंकार को पलटा कहते हैं एवं टेबल में कायदे के बोलों को उलटने पलटने को पलटा कहते हैं ।
दूसरा  प्रयोग तब होता है जब इसका प्रयोग गतों में किया जाये  ।इसे गत पलटा भी कहते हैं ।यह एक प्रकार का हस्तक भेद भी होता है ।गत भाव में इस क्रिया का विशेष महत्त्व हैं ।।इसी के द्वारा  पात्र ,काल या स्थान के परिवर्तन का संकेत दिया जाता है ।

५.अंदाज (andaaj)- इस शब्द का मूल अर्थ है तरीका या ढंग । कत्थक नृत्य में बोल पढ़ने का अंदाज ,तत्कार का अंदाज ,निगाह उठाने का अंदाज आदि में इस का प्रयोग होता है । उदाहरण स्वरुप ठुमरी नाचते वक़्त जब उसका भाव प्रस्तुत करते हैं तो आरम्भ में केवल आँखों से ही गीत के भाव को व्यक्त किया जाता है ,इसे अंदाज कहते हैं ।

अच्छन महाराज(achchan maharaj)

अच्छन महाराज का जन्म सं १८९३ में सुल्तानपुर जिले में हुआ था । ये कलिका प्रसाद जी के वरिष्ठ पुत्र थे । इनका नाम श्री जगन्नाथ प्रसाद था जो की बाद में अच्छन महाराज पढ़ गया । इन्होने अपनी नृत्य की शिक्षा महाराज बिंदादीन से प्राप्त की ।लम्बे अरसे तक ये नवाब रामपुर के दरबार में रहे ।
अच्छन महाराज एक अत्यंत सफल नृत्यकार थे । बीसवीं सदी के अग्रमि नृत्यकारों में से एक गिने जाते हैं । एक तरफ जहाँ वे धमार, सूलताल ,ब्रह्मताल, आदि में दक्षता से नृत्य करते थे वंही दूसरी ओर भाव प्रदर्शन में भी माहिर थे । आँचल गत की निकासी इनकी प्रसिद्द थी ।नए एवं विभिन्न तरह के टुकड़े और परन भी ये तत्काल ही बना लेते थे । ठुमरी गा कर उसका भाव प्रदर्शन करना इनकी विशेषता थी ।
ये स्वभाव से काफी सरल और शांत थे ।इनकी मृत्यु सं १९४६ में लखनऊ में हुई ।इनके देहांत से कत्थक जगत में एक अभाव रह गया । इनके पुत्र बिरजू महाराज आजकल कत्थक नृत्य जगत के बेजोड़ नृत्यकार हैं ।
शम्भू महाराज(shambhu maharaj)

शम्भू महाराज महाराज कलिका प्रसाद के बेटे एवं अच्छन महाराज जी के भाई थे । इनका जनम सं १९०८ में लखनऊ में हुआ था । इन्होने बिन्दादिनमहराज एवं अच्छन महाराज से नृत्य की शिक्षा प्राप्त की । उस्ताद रहीमुद्दीन खान साहब से इन्होने ठुमरी की शिक्षा ली ।
शम्भू महाराज नृत्य में भाव को ज्यादा महत्व देते थे । उनका विचार था की भाव रहित नृत्य बेजान दिखती है । कत्थक के समस्त रास और भावों का प्रदर्शन ये कुशलता पूर्वक करते थे । ये बैठ कर ठुमरी गाते थे और फिर उसे भाव प्रदार्शन से समझाते थे । ये परंपरागत नृत्य में विश्वास रखते थे एवं प्रयोगशील नृत्य में ज्यादा जोर नहीं देते थे । इनकी घूँघट की गाते काफी प्रसिद्ध हैं ।
इनकी नृत्य कौशल के लिए इन्हे बहुत से पुरस्कार और उपाधियाँ प्राप्त हुई है । इन्हे पद्मश्री, प्रेसिडेंट अवार्ड ,नृत्य सम्राट ,अभिनय चक्रवर्ती जैसे उपाधियाँ दी गयी हैं ।सं १९५५ में ये दिल्ली के भारतीय कला केंद्र के प्राध्यापक नियुक्त हुए जहां उन्होंने अनगिनत शिष्यों को कत्थक नृत्य की शिक्षा दी । इनका देहांत सं १९७० में हुआ ।लखनऊ घराने के ये एक असाधारण लोकप्रिय कलाकार थे ।

लच्छू महाराज(lachchu maharaj)

लच्छू महाराज कलिका प्रसाद जी के पुत्र थे । इनका नाम बैजनाथ प्रसाद था जो की बिगड़ कर लच्छू महाराज पढ़ गया. । इनका जनम लखनऊ में हुआ था और ये बचपन में बहुत चंचल स्वभाव के थे । छोटे आयु से ही इन्होने अपनी नृत्य कौशलता का प्रदर्शन किया ।कुछ समय तक इन्होने अपने भाई के साथ रामपुर और रायगढ़ की रियासतों में नृत्य प्रदर्शन किया और उसके उपरान्त वे बम्बई चले गये ।बम्बई में उन्होने बहुत से चलचित्रों में नृत्य निर्देशक का काम किया । यहां इन्होने नूतन नृत्य निकेत नाम से संस्था भी खोली जहाँ वे स्वतंत्र रूप से नृत्य की तालीम देते रहे ।
लच्छू महाराज ने कत्थक नृत्य में बहुत से प्रयोग किये । आधुनिक ढंग से उन्होंने बहुत से नृत्य नाटिका प्रस्तुत किये जिनमे भारतीय किसान ,गाँधी की अमर कहानी प्रसिद्द है ।इनका धातका थुँगा का आमद नाचते हुए कृष्णा छेड़ छाड़ का भाव दिखाना बहुत लोकप्रिय था ।इन महत्त्वपूर्ण योगदानों के लिए उन्हें १९५७ में राष्ट्रीय पदक से सम्मानित किया गया था ।
बम्बई से वे वापिस लखनऊ आ गए जहां उन्होंने कत्थक केंद्र के निदेशक का भार ग्रहण किया । १९७७ सं में इनकी मृत्यु हो गयी ।इन्हे लखनऊ घराने का रत्न माना गया है ।



Kathak mein ankhon ka mahatva

Importance of eyes in kathak

कत्थक में आँखों का महत्व :

भाव प्रदर्शन कत्थक नृत्य का एक अभिन्न अंग है । कत्थक शब्द की उत्पत्ति कथा से है और कत्थक नृत्य का नृत्यकार एक प्रकार से कथाकार ही है । अतएव अपनी कथा को दर्शाने के लिए नर्तक भाव का भरपूर प्रयोग करता है । नृत्य को भाव प्रदर्शन से और सजीव बनाने के लिए हम अपने शरीर के अंग प्रत्यंग एवं उपांगों का प्रयोग करते हैं । हमारे नेत्र सबसे छोटे उपांग होते हुए भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । कई तरह के भावों की व्याख्या हम अपने आँखों से करते हैं ।

नाट्यशास्त्र और अभिनय दर्पण जैसे ग्रंथो में नेत्राभिनय के महत्व् को देखते हुए आठ प्रकार के दृष्टि भेदों का वर्णन किया गया है । जब हम आँखों को संचालित करते हैं तो इसी सन्दर्भ में आँखों के पुतलियां , पलकें एवं भौवें भी आती है । इसलिए भारत मुनि ने भ्रू सञ्चालन के सात प्रकार बतलायी है ।

दृष्टि भेद -(Drishti bhed)

यह आठ प्रकार की बताई गयी हैं –

1. सम दृष्टि – अपलक सीधे सामने देखने को सम दृष्टि कहते है । देव प्रतिमा दिखाने के लिए , नृत्य के आरम्भ में ,सोच विचार या स्मरण करने की क्रिया को दिखने के लिए या बाण से निशाना लगाने को दर्शाने के लिए किया जाता है ।

२ .साची दृष्टि – जब नृत्य में हम कनखियों से (या आँखों के कोनों से ) देखने की कोशिश करते हैं तो उसे साची दृष्टि कहते हैं । इस दृष्टि का प्रयोग इशारे से कुछ बताने के लिए या संकेत करने में होता है।

३ .प्रलोकित दृष्टि – इस दृष्टि में आँखों की पुतलियों को हम एक और से दूसरी और चलाते हुए देखने की कोशिश करते हैं । किसी भी चलती हुए वस्तु को देखने के लिए , दोनों तरफ की चीज़ों को देखने के लिए प्रयोग में लाया जाता है ।

४ . आलोकित दृष्टि – आँखों को पूर्ण तरह से खोल कर ,पुतलियों को घूमते हुए देखने को आलोकित दृष्टि कहते है । इस दृष्टि में हमारी पुतलियां गोल आकार में घूमतीं है और इसका प्रयोग कुम्हार के चाक को बताने के लिए ,या आस पास की सभी वस्तुओं को देखने के लिए की जाती है ।

५ . निमीलित दृष्टि – आधे खुले हुए नयनों से देखने को निमीलित दृष्टि कहते है । इस दृष्टि का प्रयोग जप , ध्यान ,सर्प या सूक्षम दृष्टि बताने के लिए किया जाता है ।

६ . उल्लोकित दृष्टि – ऊपर की तरफ देखने को उल्लोकित दृष्टि कहा जाता है । इसका प्रयोग मंदिर की चोटी , ध्वजा ,ऊंचाई ,चाँद इत्यादि बताने में होता है ।

७ .अवलोकित दृष्टि – इस दृष्टि में हम नीचे की ओर देखते हैं । इससे हम छाया , शैय्या , श्रम आदि बताते हैं ।

८ . अनुवृत्त दृष्टि – वेग से ऊपर नीचे देखने को अनुवृत्त दृष्टि कहते हैं । जब हमें क्रोध से देखना हो तो हम इस दृष्टि का प्रयोग करते हैं ।

भ्रू सञ्चालन – (bhru sanchalan/brow movement)

१ . सहज – यह है भृकुटियों की स्वाभाविक स्तिथि ।

२ . उत्क्षेप – ज़रुरत के अनुसार भृकुटियों को ऊपर चढ़ाना ।

३ . पातन – भृकुटियों को झुका देना ।

४. भृकुटि – भौहों को इधर उधर घुमाना या चढ़ाना ।

५. चतुर – इसमें भौहों को फैलाया जाता है ।

६ . कुंचित – भौहों को नीचे की तरफ मोड़ना ।

७ . रेचित – इसमें एक भृकुटि को उठाया जाता है ।

कत्थक में उपरिलिखित नेत्र एवं भ्रू सञ्चालन को सहजता से करने के लिए इनका नियमित अभ्यास होना आव्यशक है । नृत्य के चाल के साथ साथ हमें इनका अभ्यास करना चाहिए । दाएं ,बाएं ,ऊपर नीचे देखना ,पुतलियों को घुमाने की क्रिया ,भौहों को बारी बारी से चलना , इन सबका अभ्यास अपने शक्ति अनुसार करना चाहिए । आखें थक जाने से यह अभ्यास रोक देना चाहिए ।

Hasta Mudra

पताका
त्रिपताका
अर्ध पताका
कर्तरीमुख
मयूर
अर्धचंद्र
अराल
मुष्टि
शिखर
कपित्थ
कटकामुख
सूचि
चन्द्रकला
पद्मकोष
शर्पशीष
सिंघमुख
अलपद्मा
भ्रमर
हंसास्य
हंसपक्ष
मुकुल

GHUNGROO

कत्थक नृत्य में घुंघरू


भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में घुंघरुओं का विशेष महत्व है । नर्तक के पैरों में बंधे ,यह पदाघातों को ताल एवं लयाश्रित करने में मदद करते है । भारतीय संगीत में प्रयोग किये जाने वाले विभिन्न वाद्य यंत्रों के सूचि में भी इसे डाला जा सकता है । घुंघरू एक तरह का घन वाद्य है जो की आघात पर बजते है । घुंघरूं की विशेषता है की यह केवल नृत्य के साथ ही प्रयोग होते हैं । कत्थक नृत्य में घुंघरू अति आवश्यक है । नृत्य के बोलों को सही तरीके से पैरों से निकालने में घुंघरू उपयोगी है । अभिनय दर्पण में घुंघरुओं के चुनाव एवं प्रयोग के बारे में विस्तारित स्पष्टीकरण दी गयी है । एक नर्तक को घुंघरुओं के बारे में कुछ विशेष बातों का ध्यान देना चाहिए :-
*घुंघरू गोल आकर के घंटी है जिन्हे पीतल के सांचे में ढालकर बनाया जाता है । इनमे एक छिद्र छोड़ा जाता है जिनमे बजने के लिए लोहे के छोटे क्षेत्र डाले जाते हैं । अभिनय दर्पण के अनुसार घुंघरू कांसे के होने चाहिए पर आजकल पीतल के ज्यादा प्रयोग होते हैं ।


*घुंघरू न तो बहुत बड़े और न ही बहुत छोटे होने चाहिए


*घुंघरुओं की ध्वनि एक सामान होनी चाहिए । अगर यह एक सामान नहीं है तो यह नृत्य के बोलों की बारीकियों को उचित तरीके से प्रदर्शित नहीं कर पाएंगे ।


*घुंघरू नीले रंग के डोरी में पिरोकर बनाई जाती है । घुंघरुओं को एक एक अंगुल के दूरी में रखकर गाँठ बांधते रहना चाहिए । इससे यह सर्वश्रेष्ठ बजती हैं ।


*प्रत्येक पैर में सौ से ढाई सौ घुंघरू बंधी होनी चाहिए । कत्थक नृत्य शिक्षा प्रारम्भ करने वाले छोटे विद्यार्थिओं के लिए यह संख्या कम कर दी जा सकती है ।


*घुंघरुओं को एड़ी के पास से बांधना शुरू करते हैं । पैरों में घुंघरुओं की चौड़ाई बहुत ज्यादा भी नहीं होनी चाहिए जिससे की उनके खुलने का डर रहता है ।अतिरिक्त घुंघरू होने से कई बार पैरों के ऊपर के हिस्से के कम्पन्न भी प्रकाशित होते हैं जो की बोल के माधुर्य को कम कर देते हैं ।


*घुंघरू हमारे नृत्य का अभिन्न अंग है । इसलिए इनको श्रद्धा पूर्वक प्रयोग करना चाहिए ।


*कत्थक नृत्य का अभ्यास घुंघरुओं के बिना नहीं करना चाहिए ,इससे पैरों का संतुलन बिगड़ सकता है ,और पदाघातों का अभ्यास भी ठीक ढंग से नहीं हो पायेगा


इस तरह हम देखते हैं की घुंघरू कत्थक नृत्य का एक विशिष्ट अंग है
भावों के साथं नृत्य को ताल और लय समन्वित करने में घुंघरुओं का महत्वपूर्ण योगदान है ।

DHWANI AND NAAD

ध्वनि(DHWANI)

जो कुछ भी हम सुन सकते हैं उसे ध्वनि कहते हैं । हमारे चारों तरफ के आवाज़ ध्वनि है। कुछ ध्वनि सुनने में मधुर है और कुछ कर्कश । इन्ही मधुर ध्वनि के समूह से संगीत बनता है । ध्वनि की उत्पत्ति कम्पन्न से होती है । संगीत की भाषा में कम्पन्न को आंदोलन(AANDOLAN) कहते है । जब हम सितार के तारों को छेड़ते है तो वह कुछ समय तक ऊपर नीचे जाता है ।इसी ऊपर नीचे जाने को कम्पन्न कहते है । सितार ,तानपुरा आदि वाद्य यन्त्र में तारों में कम्पन्न होता है,बांसुरी हवा में कम्पन्न पैदा करता है, तबला एवं पखावज अपने चमड़े के पूड़ी में कम्पन्न लाते है । अतएव किसी भी तरह के ध्वनि को उत्पन्न करने के लिए कम्पन्न ज़रूरी है । जब सितार के तार अपने जगह से ऊपर जाकर ,फिर नीचे जाकर अपनी जगह में वापस आता है उसे एक कम्पन्न कहते है ।

नाद (NAAD)

‘न नादेन बिना गीतं न नादेन बिना स्वरः।
न नादेन बिना नृत्त तसमानंदात्मक जगत॥’

अथार्थ नाद के बिना न गीत की उत्पत्ति हो सकती है और न स्वर की ।नृत्य भी नाद बिना संभव नहीं है । नाद इस पूरे विश्व में समाया हुआ है ।
नाद का संधि विच्छेद करो तो ना+द बनता है । ना का अर्थ नकार यानी ‘प्राण ‘ है । ‘द’ अथार्थ अग्नि । हमारे प्राण ऊर्जा रुपी अग्नि से हमारे शरीर से ध्वनि या नाद उत्पन्न करती है ।नियमित एवं स्थिर आंदोलन संख्या वाली मधुर ध्वनि को नाद कहते है ।जो ध्वनि मधुर नहीं होती वो ना तो नाद कहलाती है और ना तो संगीत में प्रयोग होती है ।

नाद दो प्रकार के होते है :-
अनाहत नाद -यह प्रकृति में विद्यमान होती है ,किसी जीव या वस्तु द्वारा प्रत्यक्ष आघात से पैदा नहीं होती ।
आहत नाद – जो ध्वनि टकराने से या घर्षण से उत्पन्न होती है उसे आहत नाद कहते है

नाद के तीन विशेषताएं माने जाते है ।
.नाद का बड़ा या छोटा होना -एक ही ध्वनि को धीरे से या जोर से उत्पन्न कर सकते है । जब ध्वनि धीरे है तो उसे छोटा नाद और जब ध्वनि जोर से है तो उसे बड़ा नाद कहते है । नाद का बड़ा या छोटा होना इस बात पर निर्भर है की उसे उत्पन्न करने के लिए कितने ऊर्जा का इस्तेमाल हुआ है ।
२.नाद की जाति – हर एक वस्तु,मनुष्य या वाद्य से निकला हुआ स्वर अलग होता है । यही कारण है की हम बिना देखे भी यह पता चला लेते है की यह ध्वनि किस वाद्य यन्त्र की है । नाद का यह गुण , नाद की जाति है ।
३. नाद का ऊँचा या नीचे होना – संगीत में जब हम स्वरों को सुनते है तो हम देखते है कि ‘सा’ से ऊँचा ‘रे ‘ ,से ऊंच ‘ग’ आदि है । नाद के इसी विशेषता को नाद का ऊँचा या नीचे होना बताया जाता है ।

श्रुति(SHRUTI)

‘नित्यं गीतोउपयोगित्वमभिज्ञेयत्वमप्युत।
लक्ष्ये प्रोक्तं सुपर्याप्तब संगीत श्रुति लक्षणम ॥’

अतार्थ वह ध्वनि जो गीत में प्रयोग की जा सके ,जो एक दुसरे से अलग तथा स्पष्ट पहचानी जा सके ,उसे श्रुति कहते है । संगीतज्ञ कहते है की एक सप्तक में असंख्य नाद हो सकते है पर इनमे से २२ ही संगीत में प्रयोग किया जा सकता है । इन्ही २२ नादों को श्रुति कहते है । इन श्रुतियों के नाम है- तीव्रा, कंदवति, मंदा,चंदोवाती,दयावती ,रंजनी रक्तिका ,रौद्री क्रोधी वज्रिका ,प्रसारिणी ,प्रीति,मार्जनी ,क्षिति ,रक्ता, सांदीपनि ,आलपिनी, मंदती, रोहिणी ,रम्या,उग्रा, क्षोभिणी
इन श्रीतियों से स्वरों का निर्माण होता है

UNDERSTANDING KATHAK

A very happy New Year to everyone! It has been almost a year since I published this blog. Started with a simple urge to share what I had learnt, today I am overwhelmed with the response I get for my posts. My sincere thanks for the motivation!

The last year wound up with the theory examinations being held for many students . As I observed children preparing for these exams, I felt a wee bit concerned with the importance they attributed to this aspect of dance.

I feel understanding Kathak and its nuances is as important as physically dancing ,sometimes even more so because until we are able to grasp the significance and align our steps to the narration of kathak, the grace and beauty of the recital eludes us. For example , when we understand the mudras used , the meaning and the purpose of an ‘aamad’ or a ‘namaskaar’ only then can we do justice to the piece. The knowledge that an ‘aamad’ is a welcoming piece and the ‘namaskaar’ translates to a salutation helps us emote better and share a connect with the audience.

Hence the need to know the history of this dance form, its various aspects, eminent dancers and their styles and everything related. I think we can choreograph and perform better if the ‘concept’ of kathak is clear to us. Dance is a form of expression . We can express what we know . So it is imperative for students of kathak to have a thorough knowledge of the theory involved. I guess this is the reason why, for students who appear for dance examinations , the theory knowledge is always tested.

I urge students to find out the implication of every piece they dance, every mudra they use and to be conversant with the ‘taal’ , ‘laya’ in which they perform.I am sure this practice would increase their joy in dancing immensely . It would also make the theory examinations seem a little bit easier!

Happy dancing , and may the quest to understand kathak continue…….


Nav ras in kathak

नव रस(Nav ras)


भारत मुनि के अनुसार नृत्य में ८ रस मणि गई है । यह हैं -वीर ,श्रृंगार, करुण,हास्य,भयानक,रौद्र,वीभत्स और अद्भुत । इनमे जब शांत रस मिल जाता है तो इनकी संख्या ९ हो जाती है ।विद्वानों ने वात्सल्य और भक्ति रस को भी परिभाषित किया है पर इनका रसों में गिनती करना आज भी विवादित है ।नव रसों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिए गए हैं ।


श्रृंगार रस(shringaar ras) – इस रस को दर्शाने के लिए चेहरे पर सौंदर्य का भाव,मुख पर ख़ुशी, आँखों में मस्ती की झलक इत्यादि । भारत मुनि के अनुसार जो कुछ भी शुद्ध ,पवित्र ,उत्तम और दर्शनीय है वही श्रृंगार रस है ।इस रस का स्थायी भाव रति है। इसके दो भेद माने जाते हैं -संयोग श्रृंगार एवं वियोग श्रृंगार ।
वीर रस(veer ras) -वीर रस के चार भेद माने जाते है- धर्मवीर,दानवीर,युद्ध वीर और दयावीर ।इसका स्थायी भाव उत्साह है और फड़कते हुए हाथ ,आँखों में तेज और गर्व आदि भंगिमाओं से दर्शाया जाता है ।
हास्य रस (haasya ras)-हास्य रस ६ प्रकार का होता है ।मुख्यतः -स्मित,हसित विहसित ,अवहसित ,अपहसित ,और अतिहसित ।जब हास्य अआंखों के थोड़े से विकार से दर्शाते है तो उसे हम स्मित कहते हैं,अगर थोड़े से दांत दिखाई दे तो वह हसित कहलाता है ,अगर थोड़े मधुर शब्द भी निकले तो विहसित,हँसते समय अगर कंधे और सर भी कांपने लगे तो अवहसित,इसके साथ यदि आंसू भी आ जाए तो अपहसित और हाथ पेअर पटक कर,पेट दबा कर हंसने को अतिहसित कहा जाता है ।
करुण रस(karun ras) -इस रस का स्थायी भाव शोक है ।इसको दर्शाते हुए चेहरे पर शोक की झलक होती है और आँखों की दृष्टि नीचे गिरी हुई होती है ।करुण रस मानव ह्रदय पर सीधा प्रभाव करता है ।
अद्भुत रस(adbhut ras) -इस रस का स्थायी भाव विस्मय है ।इसे दर्शाने के लिए नर्तक अपने चेहरे पर आश्चर्य की भाव और आँखों को साधारण से ज्यादा खोलता है ।
वीभत्स रस(vibhatsa ras) -घृणा और ग्लानि से परिपुष्ट होकर वीभत्स रस बनता है ।इसे दर्शाने के लिए नर्तक अपने चेहरे पर घृणा भाव लता है और नाक,भौं ,मस्तिष्क पर सिकुड़न लता है ।
रौद्र रस(raudra ras) -इस रस का स्थायी भाव क्रोध है ।रौद्र रस में मुँह लाल हो उठता है और आँखें जलने लगती है,दांतों के नीचे होठ एवं माथे पर वक्र रेखाएं नज़र आती है ।
भयानक रस(bhayanak ras) -इस रस का स्थायी भाव भय है ।जब नर्तक इसे दर्शाता है तो उसके चेहरे पर भये ,आँखें खुली हुई ,भौएं ऊपर की ओर,शरीर स्थिर एवं मुँह खुला हुआ रहता है ।
शांत रस(shant ras) -जब मानव सांसारिक सुख दुःख ,चिंता आदि मनोविकारों से मुक्ति प् जाता है तो उसमे शांत रस की उत्पत्ति होती है ।इस रस का स्थायी भाव शाम या निर्वेद है ।इसे दर्शाने के लिए चहरे पर स्थिरता ,आँख की दृष्टि नीचे की ओर ,और नाक, भौं एवं मस्तिष्क अपने स्वाभाविक स्थान पर होता है ।
अतएव हम देखते हैं की रस के अनुसार मनुष्य का बाहरी भाव बदलता रहता है ।