SECOND YEAR KATHAK THEORY

Second Year

सूची (2nd Year) :-

१)परिभाषाएं

२)धवनि एवं नाद का साधारण ज्ञान

३)महाराज बिंदादीन और कलिका प्रसाद की जीवनी

४)तालों का पूर्ण परिचय

५)कत्थक नृत्य का संक्षिप्त इतिहास

६)हस्त मुद्राएं

७)प्रश्न पत्र के चुने हुए सवाल

)परिभाषाएं

कवित्त और परमेलू(KAVITT AND PARMILU) – जब नृत्य के बालों के साथ कविता पखावज या नक्कारा आदि के बोलों को मिलाकर रचना प्रस्तुत की जाती है तो उसे परमेलु कहा जाता है।

जब किसी कविता को नृत्य के बालों के साथ ताल और लय के अनुसार प्रस्तुत किया जाता है तो उसे कवित्त कहते हैं।

हस्तक(HASTAK)– कथक नृत्य में ताल एवं लय के साथ हाथों का संचालन क्रिया को हस्तक कहते हैं। यह मुद्राएं से भिन्न होती है क्योंकि मुद्रा केवल पताका तक ही सीमित रहती है जबकि हस्तक पूरे हाथों का अंग संचालन होता है। हस्तक किसी विशेष अर्थ या किसी विशेष भाव को नहीं दर्शाता है लेकिन नृत्य मे परन टुकड़ा आदि नाचने में सहायक होते हैं। इसका विकास प्रत्येक घराने में अलग–अलग ढंग से हुआ है।

नाट्य ,नृत्त, नृत्य(NATYA, NRITT, NRITYA) :-

अंग सञ्चालन द्वारा भावों की अभिव्यक्ति अभिनय कहलाता है । अभिनय के तीन भेद है –नाट्य,नृत्त, नृत्य

नाट्य– किसी पात्र का अनुकरण या किसी कथा के अनुसार अभिनय करना नाट्य कहलाता है । इसे रूपक भी कहा जाता है क्यूंकि इसे हम आँखों से देख सकते है । जब किसी ऐतिहासिक पात्र है अनुकरण नर्तक करता है ,उसके चाल ढाल ,बोलने का ढंग, वेश भूषा आदि तो हम उसे नाट्य कहते हैं ।

नाट्य में चार प्रकार केका अभिनय होता है –आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य । भारत मुनि के अनुसार नाट्य का मूल आधार रास है और अलग अलग रसों को प्रमुखता देते हुए दस प्रकार के रूपक बताये गए हैं । वे हैं –नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम ,व्यायोग, समवकार ,वीथि, अंक और ईहामृग ।

नाट्य को अभिनय के तीनों भेड़ों में सर्वश्रेस्थ मन जाता है ।कत्थक नृत्य में गत भाव भी नाट्य के अंतर्गत ही मन जाता है ।

नृत्त – अभिनय के भेद में जिसमे भाव दर्शाने का स्थान न हो पर सिर्फ ताल लय बद्ध अंग सञ्चालन हो उसे नृत्त कहते हैं । इसमें अंग सञ्चालन किसी अर्थपूर्ण भाव प्रदर्शन के लिए नहीं परन्तु एकमात्र सौंदर्य के लिए किया जाता हैं । इसी कारन इसे परिशुद्ध नृत्य भी कहते हैं । कहा जाता है की यह नृत्य सबसे प्राचीन है । शिव भगवन का तांडव नृत्य भी नृत्त है । यह नृत्त अत्यंत शुभ मन जाता है इसलिए सभी शुभ अवसरों में इसे किया जाता है, ।कत्थक नृत्य में नाचे जाने वाले बोल, ठाट ,परं आदि भी नृत्त के रूप है ।

नृत्य :- अभिनय का तीसरा भेद नृत्य है ।नाट्य और नृत्त के समन्वय से नृत्य की उत्पत्ति होती है ।अभिनयदर्पण के अनुसार नृत्य रस और भावों के अभिव्यंजना से युक्त होता है । ताल ले के अनुसार अंगों का सञ्चालन करते हुए भावों को प्रदर्शित करना नृत्य कहलाता है ।

तीनों भेदों में से नृत्य की कला सबसे आकर्षक और कठिन होता है । नृत्य में लय प्रधान होने के कारण यह संगीत का हिस्सा भी है ।

भारत के प्रत्येक नृत्य शैली में नाट्य, नृत्त, नृत्य ,इन तीनों को अलग अलग प्रस्तुत किया जाता है।

तांडव और लास्य(TANDAV,LASYA) :-

पुराणों के अनुसार त्रिपुरासुर राक्षस को वध करने के लिए शिव जी ने जो वीर एवं रौद्र रस प्रधान नृत्य किया था वह शिव तांडव कहलाता है । इस नृत्य को क्रोध ,संहार ,वीरता आदि को दर्शाने के लिए करते है । शिव तांडव में विश्व की पांच स्तिथियाँ बताई गयी है :-सृष्टि, स्तिथि ,तिरोभाव , आविर्भाव ,और संहार । अंत में आसुरी प्रवर्तियों पर विजय के आनंद में यह नृत्य समाप्त होती है ।

इस नृत्य में अंगों की तोड़ मरोड़ महत्व रखता है । इसके चार विभाग है:-अभंग, समभंग, त्रिभंग,अतिभंग

वाद्य के तौर पर इस नृत्य में डमरू ,शंख ,मृदंग ,बजाये जाते हैं ।

तांडव नृत्य की वेश भूषा कुछ इस प्रकार है :-शिव जी के अनुसार सर पे जाता ,गंगा की धार ,चन्द्रमा ,गले में सांप ,माथे पर तीसरा नेत्र ,हाथ में डमरू और त्रिशूल ,बदन में मृगछाल ।

तांडव नृत्य मुख्यता पांच प्रकार के होते हैं –

१ .संहार तांडव –संसार को पाप मुक्त करने के लिए भगवान् शिव ने जब पृथ्वी का संहार किया था तो उसे संहार तांडव कहते है

२.त्रिपुर तांडव –त्रिपुरासुर को मरते हुए भगवान् शिव ने जो नृत्य किया था वह त्रिपुर तांडव है

३.कालिका तांडव –यह नृत्य यह दर्शाता है की किस प्रकार मनुष्य की आत्मा संसार चक्र में दुखी होती है और अंत में बंधनों से मुक्त हो जाती है

४.संध्या तांडव –यह नृत्य करूँ रस से शुरू होता है रौद्र रस में समाप्त होता है

५.गौरी तांडव–भगवान् शिव और गौरी ने जो एकसाथ नृत्य किया था वो गौरी तांडव कहलाता है

तांडव नृत्य पुरषों के करने योग्य नृत्य है पद एवं अंग सञ्चालन दोनों ही तेज गति से होता है ।धिगिनन ,धालांग ,धाकड़ ,धान .थुँगा, धत्ता ,जैसे जोरदार बोलों का प्रयोग होता है । पखावज की परने आदि तांडव नृत्य के प्रकार है ।

लास्य नृत्य एक पौराणिक कथा के अनुसार त्रिपुरासुर नमक राक्षस का वध जब भगवान् शिव ने किया था तो कृषि से जो पारवती ने नृत्य किया था वह लास्य नृत्य कहा जाता है । यह नृत्य श्रृंगार रस प्रधान नृत्य है । लास्य मनुष्य की कोमल भावनाये अभिव्यक्त करता है । यह नृत्य स्त्री पुरुष दोनों ही कर सकते हैं पर यह स्त्रीओं के लिए अधिक उपयुक्त है । भारत के प्रचलित शास्त्रीय नृत्य का उद्गम लास्य से ही माना गया है । लालित्यपूर्ण अंग सञ्चालन द्वारा करूँ एवं सौंदर्य रस को दर्शाने के लिए लास्य नृत्य का प्रयोग होता है ।

लास्य नृत्य तीन प्रकार के होते हैं ,प्रमुख :-

१.विकत नृत्य– ताल ,लय , भाव का प्रदर्शन करते हुए किया जाने वाला नृत्य विकत नृत्य कहा जाता है

२.लघु नृत्य –घुंघरुओं से पृथ्वी पर छोटकरते हुए एड़ी ेथा कर ताल लय बद्ध नाचने को लघु नृत्य कहा गया है

३.-विषम नृत्य – अड़ा गोल और टेढा घूम कर जो नृत्य किया जाये तो उसे विषम नृत्य कहा जाता है

लास्य नृत्य का संगीत भी सुमधुर होता है । कत्थक नृत्य में गतें ठुमरी और कवित्त इसी लास्य अंग से नाचे जाते हैं ।कहा जाता है की लास्य को ही सर्वांग देने के लिए भगवान् कृष्णा ने रास मंडल का प्रारम्भ किया था । दक्षिण भारतमें रास को हल्लीसक भी कहते है ।इस प्रकार हम देखते हैं की भारतीय परंपरा में शास्त्रीय नृत्य को दो हिस्सों में विभाजित किया गया है तांडव और लास्य जिनका लक्षण समस्त नृत्य शैली में अलग अलग देखा जा सकता है ।

गतभाव(GAT BHAV) :- नृत्य की चाल को गत कहते है । यह शब्द गति शब्द का बिगड़ा हुआ रूप है । गत मुख्यता दो प्रकार का होता है –गत भाव एवं गत निकास । जब नर्तक अकेले ही किसी कथा के समस्त पात्रों का अभिनय करता है तो उसे गत भाव कहते है । गत भाव एकल अभिनय से मिलता जुलता है ।गत भाव का विकास कत्थक नृत्य के जयपुर घराने में हुआ ।

यह नाट्य के अंतर्गत आता है जिसमे ताल लय के साथ अभिनय भी दर्शाया जाता है ।नर्तक अधिकतर पौराणिक कथानकों का चयन करता है ।कुछ प्रसिद्द कथानक है पनघट लीला ,कालिया दमन, गोवर्धन धारण, द्रौपदीचीयर हरण आदि । नर्तक विभिन्न नायक नायिका की छवि पलटा लेकर चलनों के साथ प्रस्तुत करता है और अत्यंत मनोरम भाव व्यक्ति करता है तो उसे गत भाव कहते है ।

चक्रदार तोडा(CHAKRADAR TODA) :-

जब कोई भी तोडा को पुरे तीन बार नाचने के बाद सैम पर आते है तो उसे चक्रदार कहते है । चक्रदाय दो तरह के होते है –बेदम चक्रदार और दमदार चक्रदार । जब तोड़े को तीन बार नाचते वक्त पहले और दुसरे के बाद थोड़ी देर रुका जाय तो उसे दमदार चक्रदार कहते हैं और जब तीनों बारी में एक सा बोल दिया जाय तो उसे बेदम चक्रदार कहा जाता है । कई लोग चक्रदार को त्रिचक्की भी कहते है ।

)धवनि एवं नाद का साधारण ज्ञान

जो कुछ भी हम कानो से सुनते है उसे ध्वनि कहते है। जिन मधुर ध्वनियों को हम सुनना पसंद करते हैं संगीत का सम्बन्ध सिर्फ उन्ही से है। संगीतके मधुर ध्वनि को नाद कहते है।ध्वनि की उत्पत्ति कम्पन्न से होती है। जब हम किसी भी वाद्य यन्त्र को बजाते है तो उसमे कम्पन्न पैदा होती है जिसे की आंदोलन कहते है। नियमित और स्थिर आंदोलन संख्या वाली ध्वनि को नाद कहते है। दुसरे शब्दों में संगीत में उपयोगी मधुर ध्वनि को नाद कहते है।नाद के तीन लक्षण माने जाते है –

नाद का छोटा बड़ा होना – धीरे से उत्पन्न की गयी ध्वनि को छोटा नाद एवं जोर से उत्पन्न की गयी ध्वनि को बड़ा नाद कहा जाता है ।छोटा नाद काम दुरी तक और बड़ा नाद अधिक दूरी तक सुनाई पड़ता है। नाद की उंचायी –निचाई – गाते समय हम अनुभव करते हैं की स्वर ऊँचा या नीचे होता है जैसे की नि स्वर म स्वर से ऊँचा है । ऊँचे स्वर में प्रति सेकंड में होने वाली आंदोलन संख्या बढ़ती जाती है।नाद की जाती व् गुण– हर एक वाद्य का स्वर एक दुसरे से अलग होता है ।इसी को नाद की जाती या गुण कहते हैं।

)महाराज बिंदादीन और कालिका प्रसाद की जीवनी

महाराज बिंदादीन(BINDADIN MAHARAJ):- लखनऊ घराने के सबसे प्रसिद्ध नृत्यकार महाराज बिंदादीन थे। इनका जन्म सन 1938 में हंडिया तहसील के 1 गांव में हुआ था। इनका असली नाम वृंदावन प्रसाद था। यह ठाकुर प्रसाद जी के बड़े भाई दुर्गा प्रसाद जी के तीनों पुत्रों में सबसे बड़े थे।
9 वर्ष की आयु से ही इन्होंने नृत्य की शिक्षा आरंभ की। इनका नृत्य का अभ्यास दिन में 12 घंटे तक चलता था और कहा जाता है कि 4 वर्ष तक इन्होंने केवल तत्कार के बोलो का ही अभ्यास करा।महाराज बिंदादीन नई–नई परणे बड़ी सरलता से बना लेते थे। वह अंग संचालन द्वारा इनके प्रदर्शन भी बड़ी ही आकर्षक रूप से करते थे। भाव गुलाल पर नाच कर चित्र बनाना तथा तलवार पर नाचने जैसे नृत्य में भी यह अत्यंत कुशल थे। मुसलमान काल में रहते हुए भी यह कृष्ण के परम भक्त थे और सात्विक जीवन जापन करते थे। इन्होने कथक नृत्य के उन्नति के लिए बड़ा काम किया है। इन्होने 1500 ठुमरियां का निर्माण करके तथा उनका भाव में रचना करके कत्थक नृत्य को महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इनकी ठुमरियां अभी तक नर्तकों में प्रचलित है। यह नेपाल और भोपाल आदि स्थान भी गए थे जहां उन्हें नाम–सम्मान तथा धन मिला इनकी मृत्यु 1918 में हुई। कत्थक नृत्य के जगत में बड़े आदर के साथ इनका नाम लिया जाता है।

कालिका प्रसाद(KALIKA PRASAD) :- कालिका प्रसाद, महाराज बिंदादीन जी के छोटे भाई थे और लखनऊ घराने के स्तंभ माने जाते थे। नृत्य के साथ–साथ यह गायन और तबला–पखवाज वादन में भी अत्यंत कुशल थे। श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति यह बड़ी कुशलता से करते थे।
कहां जाता है कि इनका स्वभाव बहुत ही सरल, मिलनसार और जिद्दी था। घमंड नामक वस्तु उनके चरित्र में था ही नहीं। उनका रहन–सहन भी अत्यंत सादा हुआ करता था।
कत्थक नृत्य की उन्नति के लिए यह अत्यंत प्रयत्नशील रहे। इनकी मृत्यु सन 1910 ईस्वी के लगभग लखनऊ में हुई। इनके तीनों पुत्र जगन्नाथ प्रसाद, बैजनाथ प्रसाद और शंभू महाराज नृत्य जगत के प्रसिद्ध नर्तक रहे हैं।

)तालों का पूर्ण परिचय to be added..

५)कत्थक नृत्य का संक्षिप्त इतिहास (BRIEF HISTORY OF KATHAK)

कत्थक नृत्य का इतिहास

कत्थक नृत्य का इतिहास बहुत प्राचीन है ।वस्तुतः कत्थक नृत्य संपूर्ण रूप से कथक शब्द पर आधारित है ।ब्रह्मा महापुराण ,महाभारत, नाट्यशास्त्र में भी कथक शब्द का उल्लेख है ।कथक दूसरों के हित के लिए अभिनय के माध्यम से कथा प्रस्तुत करते थे ।मोहनजोदारो एवं हररप्पा की खुदाई से पायी गयी मूर्तियों से भी कत्थक के होने का आभास मिलता है । संगीत रत्नाकर के अनुसार प्राचीन काल में कथावाचकों द्वारा मंदिरों में पौराणिक कथाएं हुआ करतीं थी ।बाद में जब कीर्तन होता था तो नट नृत्य करते थे ।यही नट बाद में कत्थक कहलाने लगे ।नृत्य के शास्त्रीय सिद्धांतों से परिचित होकर ये भगवान् कृष्णा के लीलाओं का नृत्य प्रस्तुत करने लगे । धीरे धीरे यह नृत्य मुख्यतः राज दरबारों में सीमित रह गया ।अतएव इस नृत्य में श्रृंगार रस का प्रभाव ज़्यादा पढ़ने लगा ।यह नृत्य इश्वर उपासना मात्र न रह कर अब दरबारों की मनोरंजन की वास्तु हो गयी ।राधा कृष्णा के पावन नृत्य में आध्यात्मिक भाव के स्थान पर श्रृंगारिक भावना आ गयी ।कत्थक नृत्य का अलग शास्त्र बनाया गया ।नृत्य के पारिभाषिक शब्द उर्दू में लिखे जाने लगे ।कत्थक नृत्य के वेश भूषा पर भी मुग़लकालीन दरबारी प्रभाव है । मुग़ल काल के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के समय में नृत्य को काफी प्रोत्साहन मिला ।उनके समय से कत्थक नृत्य का विशेष प्रचार हुआ ।उनके गुरु ठाकुर प्रसाद जी ने ही इस नृत्य का नाम कत्थक नटवरी नृत्य रखा । वर्त्तमान युग में इस नृत्य को एक नयी दिशा की और ले जाने एवं एक नया जीवन प्रदान करने का प्रयास चल रहा है ।

)हस्त मुद्राएं to be added..

)प्रश्न पत्र के चुने हुए सवाल

दृष्टि भेद(DRISHTI BHED)

कथक नृत्य में आंखों का बड़ा महत्व है। सौंदर्य के साथ–साथ यह भाव दर्शाने में भी उपयोगी है।नाटक के नेत्रों को देखकर हमें उसके द्वारा दर्शाए गए सभी रसों के बारे में पता चल सकता है। अतः नृत्य में दृष्टि भेद बहुत महत्वपूर्ण है।

भरत ने आठ प्रकार की दृष्टि भेद का वर्णन किया है वह है
1. समदृष्टि– अपलक सीधे सामने देखने को समदृष्टि कहते हैं। अभिनय में यह सोच विचार करना, आश्चर्य या फिर देव प्रतिमा दिखाने के प्रयोग में लाया जाता है।
2. साची दृष्टि– आंखों के कोने से देखने को साची दृष्टि कहा जाता है। यह याद करना का कार्य आरंभ करना आदि भावों को दर्शाता है।
3. आलोकित दृष्टि– आंखों को खोलकर पुतलियों को चारों तरफ घुमाने से आलोकित दृष्टि होता है। इसका प्रयोग याचना करना या सभी वस्तुओं को देखने आदि में किया जाता है।
4. प्रलोकित दृष्टि– इसमें एक और से दूसरी और पुतलियों को चलाते हैं। इसका प्रयोग चलती हुई चीजों को देखने में या प्रेम या मूर्खता प्रकट करने में किया जाता है।
5. अनुवृत दृष्टि– तेज रफ्तार से ऊपर नीचे देखने को अनुवृत दृष्टि कहा जाता है। इसको ज्यादातर क्रोध दर्शाने के प्रयोग में लाया गया है।
6. निमीलित दृष्टि– जब आंख अधखुली अवस्था में हो तो हम उसे निम्नलिखित दृष्टि कहते हैं। इसका प्रयोग जप, ध्यान, सर्प या सूक्ष्म दृष्टि बताने के लिए किया जाता है।
7. अवलोकित दृष्टि– नीचे की ओर देखने को अवलोकित दृष्टि कहते हैं। यह ज्यादातर छाया, श्रम आदि भावों को दिखाने के लिए प्रयोग किया जाता है।
8. उल्लोकित दृष्टि– ऊपर की तरफ देखने को उल्लोकित कहते हैं। यह मंदिर की चोटी, ऊंचाई या चांदनी को बताने में प्रयोग किया जाता है।

शिरो भेद(SHIRO BHED)–

जिस तरह मनुष्य के अंगों में से सिर का प्रमुख महत्व है उसी तरह अभिनय मैं भी सिर के संचालन का कम महत्व नहीं है। अभिनय दर्पण के अनुसार 9 तरह के शिरो वेद का वर्णन किया गया है वह कुछ इस प्रकार है :-
1.समशिर– इसमें सिर् ना तो अधिक ऊंचा होता है और ना अधिक नीचा होता है। इसका प्रयोग अभिनय में जय, अहंकार या प्रेम को दर्शाने में किया जाता है।
2.उद्वाहित श्इर– इसमें सिर ऊपर की ओर उठा हुआ होता है। इसका प्रयोग चंद्रमा ,पर्वत या आकाश को बताने में किया जाता है।
3. अधोमुख शिर– नीचे की ओर झुका हुआ सिर अधोमुख सिर कहा जाता है। इसका प्रयोग चिंता, दुख या लज्जा बताने में किया गया है।

4.आलो लित शिर– इसमें सर को गोलाई से घुमाया जाता है। इसका प्रयोग निद्रा का वेग दर्शाने में या मूर्च्छा की अवस्था दर्शाने में कीया जाता है।

5.धुत शिर– बाएं से दाएं और या दाएं से बाएं और चलता हुआ सर धुत शिर कहलाता है। इसका प्रयोग आश्चर्य, अनिच्छा, भय या अगल–बगल देखने की क्रिया को दर्शाने में किया जाता है।

6.कंपित शिर– इसमें सर को ऊपर व नीचे चलाया जाता है। इसका प्रयोग क्रोध दिखाने में, प्रश्न करने में, नजदीक बुलाने में या देवताओं का आह्वान करने में किया जाता है।

7.परावृत्त शिर– इसमें सिर को पीछे की ओर मोड़ देते हैं। इसका प्रयोग मुंह फेर लेना, अनादर या आज्ञा देना आदि भावों को दिखाने में किया जाता है।

8.उत्क्षिप्त शिर– इसमें सर को एक और मोड़ कर ऊपर की तरफ उठाते हैं। इसका प्रयोग सहायक आदि भावों को दर्शाने के लिए किया जाता है।

9.परिवाहित शिर– इसमें सिर को एक और से दूसरी और डुलाते हैं। इसका प्रयोग देवताओं की स्तुति संतोष या सम्मति आदि भावों को दर्शाने मे किया जाता है।

घुंघरू का महत्व
भारत के प्रमुख शास्त्रीय नृत्य में घुंघरू का बहुत ही बड़ा महत्व है। इसका प्रमुख कारण यह है कि भारतीय शास्त्रीय नृत्य ताल और लय के आश्रित है। इन घुंघरु के द्वारा ही नर्तक अपनी पदाघात से उत्पन्न ध्वनि को तबले के शब्द एवं बोलों के साथ सामंजसय रख पाता है। तबला एवं पखावज से निकली ध्वनि के अनुसार ही नर्तक अपना पदाघात करता है। जिनको कि घुंघरू स्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर करता है।
यह नर्तक का संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होता है। घुंघरुओं की ध्वनि कर्ण मधुर है इसीलिए रस एवं भावों को दर्शाने में भी काम आता है। घुंघरू कत्थक नृत्य का चिर साथी है।

अभिनय दर्पण के अनुसार नर्तक के हर एक पैर में सौ सौ घुंघरू कम से कम होना चाहिए। घुंघरू कांसे के बने हुए होने चाहिए और नीले धागे में पिरोए हुए होने चाहिए। हर एक घुंघरू से एक समान ध्वनि उत्पन्न होना चाहिए। घुंघरू समान आकार एवं सुंदर होने चाहिए। पैरों में घुंघरू को मजबूती से बांधना चाहिए ताकि नृत्य करते वक्त वह खुलेना।

अतः हम देखते हैं कि घुंघरू भारतीय नृत्य कला का एक विशिष्ट अंग है।

कत्थक नृत्य प्रदर्शन में वाद्य यंत्र का महत्व(IMPORTANCE OF MUSICAL INSTRUMENTS IN KATHAK)

गायन वादन तथा नृत्य के साथ संगति करने की परंपरा बहुत प्राचीन है| नृत्य ताल एवं लय पर आश्रित है इसलिए नृत्य में वाद्य यंत्र का विशेष महत्व है। कथक नृत्य में सामान्यता तबला एवं पखावज के साथ–साथ हारमोनियम सारंगी अथवा वायलिन भी बजाया जाता है। समय के अनुसार संगत में प्रयोग किए जाने वाले वाद्य यंत्र में भी बदलाव आया है। जहां पूर्व मृदंग का प्रयोग होता था वहां आजकल तबले का प्रयोग होता है। नृत्य में ताल की अवधि को दर्शाने के लिए और संगीत के साथ इसका संबंध स्थापित करने के लिए वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता है।

उदाहरणस्वरूप भिन्न–भिन्न तालो के अलग–अलग बोलो के अनुसार तबला या पखावज को बजाया जाता है। जिन बोलो को नर्तक  अपने पदाघात से प्रस्तुत करता है उन्हीं को तबला या पखावज पर बजाया जाता है। ऐसा करने से एक तो बोलो का भाव खुलकर सामने आता है और दूसरा नर्तक को ताल का ज्ञान होता रहता है। इसी तरह से लहरा भी हारमोनियम या सारंगी पर बजाया जाता है इसका प्रयोग भी नर्तक को और दर्शक को ताल  और लय में बाँध कर रखने के लिए किया जाता है। हरताल का अलग लहरा होता है लहरा एक आवृत्ति का होता है। इसकी श्रवण से हमें मालूम पड़ता है कि कौन सा मात्रा चल रहा है।

संगत में बजाए जाने वाले वाद्य पूरी नृत्य की पेशकश तक जारी रहती है। तबला और लहरा के सुर मिलाने पर से नृत्य आरंभ होता है।नर्तक किस ताल में अपना नृत्य प्रस्तुत कर रहा है यह पहले बजे हुए तबले और लहरें से पता चल जाता है। सही कहा गया है कि इनके बिना नृत्य–संगीत हीन एवं प्राणहीन लगेगी। अतएव कत्थक नृत्य प्रदर्शन में वाद्य यंत्र का बहुत ही महत्व है।